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Sunday, January 23, 2011

सीनियर इंडिया/बिल्डर

सीनियर इंडिया ने मारा मेरा मेहनताना
कुछ दिन पहले अखबार में खबर छपी कि ’सीनियर बिल्डर’ गिरफ़्तार। पढ़कर आश्चर्य नहीं हुआ।  ऐसा होना ही था। सीनियर बिल्डर लिमिटेड यानी एसबीएल कम्पनी मालिक विजय दीक्षित सीनियर मीडिया के भी मालिक हैं। सीनियर मीडिया की पाक्षिक हिन्दी पत्रिका ’सीनियर इंडिया‍’ के लिए मैंने तत्कालीन सम्पादक और पुराने पत्रकार (दैनिक लोकमत समाचार, नागपुर के पूर्व सम्पादक और मेरे कुछ परिचित) एस.एस विनोद के कहने पर बन्द पड़ी पत्रिका को फ़िर शुरू करने में सहयोग की खातिर ३ दिन लगातार रात-दिन काम किया। इस दौरान मैं अपने एक डिज़ाइनर मित्र और अन्य लोगों के साथ डिफ़ेंस कॉलोनी स्थित पत्रिका कार्यालय में ही रहा। यह पत्रिका मेरे दैनिक जनसत्ता के साथी पत्रकार और सीनियर इंडिया के सम्पादक आलोक तोमर द्वारा एक कार्टून छापने के विवाद या अन्य कारण से उनकी विदाई के बाद बन्द पड़ी थी। दिल्ली के एक बड़े होटल में कम्पनी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पत्रिका बंटनी थी सो किसी भी तरह पत्रिका छापनी ही थी।
इस अंक के लिए आवरण डिज़ाइन, आन्तरिक सज्जा और अनेक चित्र-कार्टून बनाने बाद भी कई अंकों के लिए मैंने पूरी लगन से काम किया। पारिश्रमिक के लिए भी कहता रहा, याद दिलाता रहा। भुगतान के लिए अनेक बार अश्वासन मिले। यहां तक कहा गया कि चैक तैयार है, ले जाएं। इसके लिए सीलिंग के दौरान नोएडा स्थान्तरित हुए दफ़्तर में भी मुझे ३ बार बुलाया गया। लेकिन उस चैक पर मालिक साब यानी विजय दीक्षित के हस्ताक्षर कभी नहीं हुए सो मुझे कभी वह चैक मिला भी नहीं।
किन्हीं कारणों से एस.एन. विनोद की विदाई हो गयी। अब नये सम्पादक आये मेरे एक अन्य मित्र विनोद श्रीवास्तव जो काफ़ी पहले दिल्ली प्रेस में काम करते थे और बाद में मासिक पत्रिका ’मेरी संगिनी’ के सम्पादक रहे। पहले इन्होंने कहा कि पिछला भुगतान हो जाएगा, काम शुरू करो। बाद में कहा कि मालिक से बात हो गयी है, फ़िर कहा कोशिश करूंगा। खैर, सामग्री छपने के ३ महीने बाद भुगतान करने के अपने नियम के तहत वे काम कराते रहे। बाद में कई बार मेरा चैक ’तैयार’ हुआ पर मालिक के दस्तखत न होने से मिला नहीं, हालांकि मुझे चैक लेने के लिए २-३ बार बुलाया भी गया। यों दिल्ली जैसे शहर में डाक, कूरियर या सन्देशवाहक के द्वारा बड़ी आसानी से कोई कागज-दस्तावेज भेजा जा सकता है। पर भेजने की नीयत भी तो होनी चाहिए।
अपने मेहनताने को लेकर मैं काफ़ी सक्रिय रहा। विजय दीक्षित से मिलने की हर कोशिश बेकार रही। अनेकों बार डिफ़ेंस कॉलोनी स्थित दफ़्तर में मैंने सम्बन्धित बिल दिये, मालिक को अनेक बार ई-मेल किए पर कोई नतीजा नहीं निकला। मेरा कुल पारिश्रमिक ३४४५०.०० रुपये (चौंतीस हजार चार सौ पचास रुपये) है जो अनेक प्रयासों के बाद भी आज तक नहीं मिला। यह मेहनताना सन २००६, २००७ और २००९ का है।
विजय दिक्षित
कुछ लोगों को अखबार-पत्रिका निकालने की बीमारी चार पैसे जेब में आते ही लग जाती है। जल्दी ही वे अपना मीडिया हाउस बना लेना चाहते हैं ताकि अपने अनेक उल्टे-सीधे काम कराने या धोंस जमाने के लिए उसका इस्तेमाल कर सकें।
मैं यही चाहता हूं कि मेरे जैसे फ़्रीलांस काम करने वाले मित्र ऐसे लोगों से जरूरत से ज्यादा सावधान रहें और ऐसे लोगों को बेनकाब भी करें ताकि अन्य मेहनती लोग इनके शोषण के शिकार न हों।
इसी तरह और भी अनुभव हुए हैं- नौकरी और फ़्रीलांस काम करने के दौरान, फ़िर बताऊंगा।
link: http://bhadas4media.com/article-comment/13709-2013-08-12-17-03-19.html
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1 comment:

  1. बेचारे बिल्डर को लिखना—पढ़ना नहीं आता होगा...चैक पर अंगूठा लगाते शर्म आती होगी.

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